Monday, November 30, 2015

किमर्थं संस्कृतम् ?


वयम्  संस्कृतं किमर्थ पठामः?अस्याःभाषायाः पठनेन के लाभाःवर्तन्ते ?एतदर्थं अधोलिखितं तथ्यं अवश्यं पठनीयम् :-

Samskrit Benefit 1: Samskrit Is Brain Development Tonic ! : Cognitive Capacity, Creativity, Competitiveness

Monday, November 23, 2015

ବିଷୟ ଦୁଷଣମ୍

न संसारोत्पन्नं ...............विषयिणाम्  ।।
ସାଂସାରିକ ସୁଖ ନିମିତ ଯେଉଁ ପୁଣ୍ୟାଚରଣ 
ସୁବିଚାରେ ନୁହେଁ ମଂଗଳ ସେ ଦୁଖର କାରଣ 
ମହାପୁଣ୍ୟ ଫଳ ସଂଚିତ ବିଷୟ ଭୋଗରସ 
ଦୀର୍ଘ କାଳ ଭୋଗୀ ବିଷୟୀ ପାଏ ଦୁଖ ବିଶେଷ ।।୧୧ 
अवश्यं यातारः...............अनन्तं विदधते ।।
ଚୀରଭୋଗ୍ୟ ନୁହେଁ ବିଷୟ ଦିନେ ହେବ ସେ ଶେଷ 
ଇଛାରେ ବିଷୟ ତ୍ୟାଗରେ ନାହିଁ ଭେଦ ବିଶେଷ ।
ଆପେ ନଷ୍ଟ ହୋଂତେ ବିଷୟ ମନେ ଅସୀମ ଦୁଖ 
ସ୍ଵଇଚ୍ଛା  ତ୍ୟାଗରେ ମିଳିବ ଶାନ୍ତି ସୁଖ ଅଶେଷ ।।୧୨ 

Saturday, November 21, 2015

संस्कृतम्


          नमस्ते!
                     
     परिवर्त्तनं सर्वदा अपरिवर्तनियम् । अतः युगानुसारं बालकानां रुचेः परिवर्त्तनं  स्विकार्यम् । सुष्ठुतया  एतत् परिलक्षते यत् आधुनिक-शिक्षण- संस्थासु  विद्यार्थिनां आग्रहः शनैः शनैः संस्कृतात् दूरं गतः । एतादृशं परिवर्त्तनं  कदाचित् न शोभनम् । एतत् तु सत्यं अस्ति यत् कतिपयेेषु  विद्यालयेषु संस्कृतस्य पठन-पाठनं समाप्तं जातम्। विद्यार्थिनां कृते पञ्चमी कक्षातःआरभ्य अष्टमी कक्षा पर्यन्तं संस्कृतं वाध्यतामुलकं अस्ति ।परन्तु कोमलमति  -बालकाः यदा नवमि कक्षां प्रविशन्ति तदा तेषां मनसि अनेके प्रश्नाः संजाताः भवन्ति ।एतेषां प्रश्नानां समुचितानि उत्तराणि प्राप्तुं ते अक्षमाः भवन्ति । यस्मात् कारणात् संस्कृतं आदृतं न भवति ।.विज्ञान -गणित तथा आङ्ग्लभाषायाः प्रभावेन संस्कृतं  निर्जितं भवति ।
                                   विद्यार्थिनां कृते संस्कृतस्य का आवश्यकता वर्तते ? किमर्थं एषा भाषा पठनीया ?इत्यादि अनेकानां प्रश्नानां समाधानाय अहं बहु चिन्तनं अकुर्वम् संप्रति संगणकीय युगे सङ्गणकस्य प्रयोगेण स्व विचारं उपस्थापयितुं चेष्ठितोऽहं ब्लोग इत्यस्य निर्माणाय प्रयासं कृतवान् बहु परिश्रमस्य फ़लस्वरुपः मम एषः लघु प्रयासः। "संस्कृतं प्रति प्रत्यागमनं " अथवा   "COME BACK TO SANSKRIT " इति शीर्षकं आधृत्य मया एषः blog  निर्मितः । यदि अनेन प्रयासेन संस्कृतस्य लाभः भवेत्   तर्हि श्रमसाफ़ल्यम् भविष्यति।
                                                                                        इति शम


Friday, November 20, 2015

अब भी बाकि है -7

       मनुष्य किसी भी कार्य को करने से पहले श्रम ,समय और व्यय को विचार करता है I नए नए कौशल को अपनाता है I धीरे धीरे कार्य प्रणाली में परिवर्तन लाता है I कम समय ,कम श्रम और कम से कम व्यय  से अधिक उत्पादन होने को सम्यक कार्य और वैसे कार्य को संपादन करने वाले को हम  कार्य कुशली कहते हैं I समय था जब एक वस्त्र को निर्माण करने के लिए एक व्यक्ति को कई दिन लग जाता था I अब एक व्यक्ति एक दिन में हजारों वस्त्र निर्माण करने में समर्थ होता है I आज के युग में मनुष्य अपने श्रम ,समय और  व्यय को बचाने के लिए अनेक क्षेत्र में बहुमुखी कुशलता को प्रदर्शन करने में सक्षम हो चूका है I कंप्यूटर ,मोबाइल जैसे यंत्रों के प्रयोग से मनुष्य विकाश के चरम पर पहुँच गया जैसे लग रहा है I कभी  कभी मन में यह ख्याल आता है -अब जितना हो गया है , उसके बाद मनुष्य को भौतिक जगत में और क्या चाहिए ? सारी कामनाएं पूरी हो चुकी है I लेकिन आशाएं अनंत होते है I कभी समाप्त होने की नाम नहीं लेती I 

Thursday, November 19, 2015

ବନ୍ଦେ ଉତ୍କଳ ଜନନୀ


 ବନ୍ଦେ ଉତ୍କଳ ଜନନୀ 
ମାତୃଭୂମି ମାତୃଭାଷାର ମମତା ଯା ହୃଦେ ଜନମି ନାହିଁ 
ତାକୁ ଯଦି ଜ୍ଞାନୀ ଗଣରେ ଗଣିବା ଅଜ୍ଞାନୀ ରହିବେ କାହିଁ 

"ନିରାଶ୍ରୟ ମାମ୍  ଜଗଦୀଶ  ରକ୍ଷ "

ଭଜରେ ମାନସ ହଂସ ନିଳାଦ୍ରୀ କ୍ଷେତ୍ର ମଣ୍ଡନ 
 ପାଇବୁ ଯେବେ ମୁକତି କରି ବ୍ରହ୍ମଂକୁ ଦର୍ଶନ .
ଉତ୍ତମ ଗୁରୁ ପୟର ସେବ ପାଇବୁ ମନ୍ତର 
ଜନ୍ମ ମୃତ୍ୟୁରୁ ଉଦ୍ଧରି ପାଇବୁ ବୈକୁଂଠେ ସ୍ଥାନ .
ମାୟା ଜଗତ ପ୍ରପଂଚ ସେଥିରେ ପାପ ନସଂଚ 
ଭୁମାନନ୍ଦେ ଯେବେ ଇଚ୍ଛା ଜଗାତୁ ଅନ୍ତର ଜ୍ଞାନ .
ମହା ବାକ୍ୟେ ଉପଦ୍ଦିଷ୍ଟ ହେଲେ ହେବୁରେ ତୁ ଶ୍ରେଷ୍ଠ 
ବାଂକା କହେ ତରିଯିବୁ ଥିଲେ ଲଲାଟେ ଲେଖନ .

ସମସ୍ତ ପାଠକଂକୁ ମୋର ସବିନୟ ପ୍ରଣାମ 
ଗୋପୀନାଥ ପଣ୍ଡା 

Saturday, November 7, 2015

ज्ञानगंगा -6

                     मनुष्य तो जिज्ञासु है I क्षुधा खाद्य से और प्यास पानी से शांत होते हैं I परन्तु जिज्ञासा ज्ञानपान करने से शांत न होकर बलवती होती है I यदि जिज्ञासा ज्ञान पान  करने से समाप्त हो जाती है ,तो ज्ञान का पथ रुद्ध हो जाता है I इसलिए ज्ञान रूप समुद्र से  सूक्ष्म बालूका कणों को संग्रह करते हुए यदि जीवन समाप्त हो जाए , तो उसे  सार्थक जीवन कहा जाता है I

Tuesday, November 3, 2015

दिव्यज्ञान -5

               एक दिव्यद्रष्टा अपने ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्र करके दिव्यज्ञान को प्राप्त करता है .परन्तु एक वैज्ञानिक अपने ज्ञान को विज्ञानागार मैं वैज्ञानिक विश्लेषण के द्वारा ही प्राप्त करता है .एक को दिव्यज्ञान प्राप्त होता है दूसरे को विज्ञान प्राप्त होता है .एक पक्ष्य में प्राचीन प्रक्रिया अपर पक्ष्य में अर्वाचीन प्रक्रिया . चाहे कुछ भी हो उद्देश्य तो एक ही है .ज्ञान की प्राप्ति . जैसे पुरातन का उत्तराधिकारी नूतन है, वैसे प्राचीन का  उत्तराधिकारी अर्वाचीन है .इसलिए दिव्यज्ञान को विज्ञान से परखने का विचार अप्रासंगिक नहीं है .पर विज्ञान को कसौटी बनाकर दिव्यज्ञान को अप्रामाणिक करदेना मुर्खता नहीं है तो क्या है ? अर्थात् सजीव ज्ञानेन्द्रियों के उपलब्धियों को निर्जीव यंत्रों से ठुकरादेना असंगत ही है .

Monday, November 2, 2015

ବୈରାଗ୍ୟ ଶତକମ୍



ଓଁ ନମଃ ଭଗବତେ ବାସୁଦେବାୟ
                      କବି ଭର୍ତ୍ତୃହରିଂକ ଦ୍ବାରା ବିରଚିତ  
"ବୈରାଗ୍ୟଶତକମ୍"
(ଶ୍ରୀ ଗୋପୀନାଥ ପଣ୍ଡା କୃତ ଓଡିଆ ପଦ୍ୟାନୁବାଦ)
ତୃଷ୍ଣା ଦୂଷଣମ୍

ଭ୍ରମି ଦେଶ ଦୁର୍ଗ କିଛି ନମିଳେ ଫଳ 
ଛାଡି କୁଳ ଶିଳ ସେବା କାର୍ଯ୍ୟ ନିଷ୍ଫଳ    
ଭୟରେ କାକ ସମ ପର ଖାଦ୍ୟ କବଳ 
କଲି ମୁଁ  ତୋ ପ୍ରଭାବେ ହୋଇ ଅତି ବିକଳ   
  ତଥାପି ନ ହେଲା  ତୋ ସନ୍ତୋଷ II ୧ 
ତୃଷ୍ଣା ହୋଇଲୁ ନାହିଁ କେବେ ତୁ ତୋଷ  
   ଦେଖ ପଳିତ ହେଲା ଆସି ମୋ କେଶ (ଘୋଷା ) 
ଧନ ଆଶାରେ ବହୁ ସ୍ଥାନର ମାଟି ତଳ 
ଖୋଲିଲି ପର୍ବତ ଧାତୁ କଲି ତରଳ 
ସାଗର ହେଲି ପାର ଧନିଂକ ଉପଚାର
ମନ୍ତ୍ରାରାଧନେ ଗଲା ଶ୍ମଶାନେ ନିଶା ମୋର 
                        କଣା କଉଡି ନାହିଁ ମୋ ପାଶ  I            II ୨ II
ଖଳ ଆରଧାନେ କଟୁ କଥା ସହିଲି 
କୋହ ଚାପିରଖି ଶୂନ୍ୟମନେ ହସିଲି   
ମୁର୍ଖ ଧନିଂକ ପାସେ ହାତ ଯୋଡି ରହିଲି 
ନିଷ୍ଫଳ ମନୋରଥେ !ତୋ ପାଇଁ ସବୁ କଲି 
                        ଆଉ କି ନଚାଇବୁ ବିଶେଷ   I              II୩ II
ପଦ୍ମ ପତ୍ରେ ଢଳ ଢଳ ଚଂଚଳ ଜଳ 
ଜୀବନ କାଳ ପାଇଁ କି  ଆମ୍ଭେ ସକଳ 
ନିଜ ଗୁଣ କିର୍ତ୍ତନେ ଗଲା ଏ ବେଳ ବଳ 
ଦେଇ ବିବେକ ବଳି କଲୁ ପାପ ପ୍ରବଳ 
                        ତୃଷ୍ଣା ତୁ ହେଲୁ ଏକା ହରସ  I             II ୪ II
କ୍ଷମା ଗୁଣେ କାରେ କରି ନାହିଁ ମୁଁ ତୋଷ 
ଗୃହ ସୁଖ ଅଦ୍ୟାପି ଛାଡୁ ନାହିଁ ମୋ ପାଶ 
ତପ ନକରି ସହେ ଶୀତ ତପନ କ୍ଲେଶ 
ବିତ ଚିନ୍ତାରେ ଧ୍ୟାନ ରହିଲା ଅହର୍ନିଶ 
                        ନମିଳେ ଶମ୍ଭୁ ପଦ ପିୟୁଷ I                II ୫ II 
ଭୋଗ ନୋହେ ଭୋଜ୍ୟ ହୋଇଲେ ଆମ୍ଭେ ଭୁକ୍ତ 
ତପ ନୋହେ ତପ୍ତ ଆମ୍ଭେ ସର୍ବେ ସଂତପ୍ତ 
କାଳ ନୋହେ ଅତୀତ ଆମ୍ଭ ସମୟ  ଗତ 
ତୃଷ୍ଣା ଏବେ ତରୁଣୀ ଆମ୍ଭ ବପୁ  ଲୁଳିତ 
                        ତୋହାର ଏକା ଅଛି ଆୟୁଷ  I             II ୬ II
ଚନ୍ଦ୍ର ମୁଖକୁ  ବଳିଏ କଲେ ଆକ୍ରାନ୍ତ 
ସୁନ୍ଦର ଶିର ପଳିତ କେଶେ ଆବୃତ 
ଚଳେ ପାଣି ପାଦ ଗାତ୍ର ହେଲା ଶିଥିଳ 
ବିଷୟ ଭୋଗ ମୋର ସହି ନପାରେ କାଳ
                        ତୃଷ୍ଣା ତୋ ହୁଏ ନୁଆ ବୟସ  I              II ୭ II
ପୁରୁଷତ୍ବ ଗଲା ଭୋଗୁ ମନ ନିବୃତ 
ସମ ବୟଷ୍କ ବନ୍ଧୁଏ ହେଲେଣି ମୃତ 
ଦୃଷ୍ଟି ହିନ ଶରୀର ଜଷ୍ଟି ଆଶ୍ରେ ଉତ୍ଥିତ 
ତଥାପି ମୃତ୍ୟୁ ଭୟେ ଦେହ ହୁଏ ଚକିତ 
                        ଆଶା ତୁ ମୋତେ କଲୁ ନିରାଶ  I           II ୮  II
ଆଶା ନାମ ନଦୀ ଅଭିଳାଷ ପିୟୁଷ 
ତୃଷ୍ଣା ତରଂଗ ବିତର୍କ ବିହଂଗ ବାସ 
ରାଗ ନକ୍ର  କରନ୍ତି ଧୈର୍ଯ୍ୟ ଦୃମକୁ ଧ୍ବଂସ 
ମୋହ ଆବର୍ତ୍ତ  ଚିନ୍ତା ଦୁର୍ଭେଦ୍ୟ ଦୁଇପାର୍ଶ୍ବ
                      ତରଣେ କ୍ଷମ ଯୋଗୀ ଯୋଗେଶ I           II ୯  II
                                                          କ୍ରମଶଃ ........(ଶତ ଶ୍ଲୋକ ପର୍ଯନ୍ତ)