दिव्यज्ञान -5
एक दिव्यद्रष्टा अपने ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्र करके दिव्यज्ञान को प्राप्त करता है .परन्तु एक वैज्ञानिक अपने ज्ञान को विज्ञानागार मैं वैज्ञानिक विश्लेषण के द्वारा ही प्राप्त करता है .एक को दिव्यज्ञान प्राप्त होता है दूसरे को विज्ञान प्राप्त होता है .एक पक्ष्य में प्राचीन प्रक्रिया अपर पक्ष्य में अर्वाचीन प्रक्रिया . चाहे कुछ भी हो उद्देश्य तो एक ही है .ज्ञान की प्राप्ति . जैसे पुरातन का उत्तराधिकारी नूतन है, वैसे प्राचीन का उत्तराधिकारी अर्वाचीन है .इसलिए दिव्यज्ञान को विज्ञान से परखने का विचार अप्रासंगिक नहीं है .पर विज्ञान को कसौटी बनाकर दिव्यज्ञान को अप्रामाणिक करदेना मुर्खता नहीं है तो क्या है ? अर्थात् सजीव ज्ञानेन्द्रियों के उपलब्धियों को निर्जीव यंत्रों से ठुकरादेना असंगत ही है .
प्राच्य जगत के ज्ञान का खजाना भारत में है .भारतीय मुनि ,ऋषि ,महापुरुषों को जो दिव्यज्ञान मिला शायद दूसरे किसी को ऐसा ज्ञान स्वप्नों में भी प्राप्त करने का सौभाग्य मिला होगा . सामान्य जीवनयापन ,उच्च चिंतन ,एकाग्र मन ,प्रगाढ़ ध्यान ,विश्व कल्याण के लिए निरंतर प्रयत्न के द्वारा हमारे मुनि ऋषिओं को दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुई .जगत के कल्याण चाहनेवालों को जागतिक शक्तियां अवश्य मिल जाती है इसमें कोई संदेह नहीं है .
क्रमशः ...............
Good one. _s.f
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