मनुष्य किसी भी कार्य को करने से पहले श्रम ,समय और व्यय को विचार करता है I नए नए कौशल को अपनाता है I धीरे धीरे कार्य प्रणाली में परिवर्तन लाता है I कम समय ,कम श्रम और कम से कम व्यय से अधिक उत्पादन होने को सम्यक कार्य और वैसे कार्य को संपादन करने वाले को हम कार्य कुशली कहते हैं I समय था जब एक वस्त्र को निर्माण करने के लिए एक व्यक्ति को कई दिन लग जाता था I अब एक व्यक्ति एक दिन में हजारों वस्त्र निर्माण करने में समर्थ होता है I आज के युग में मनुष्य अपने श्रम ,समय और व्यय को बचाने के लिए अनेक क्षेत्र में बहुमुखी कुशलता को प्रदर्शन करने में सक्षम हो चूका है I कंप्यूटर ,मोबाइल जैसे यंत्रों के प्रयोग से मनुष्य विकाश के चरम पर पहुँच गया जैसे लग रहा है I कभी कभी मन में यह ख्याल आता है -अब जितना हो गया है , उसके बाद मनुष्य को भौतिक जगत में और क्या चाहिए ? सारी कामनाएं पूरी हो चुकी है I लेकिन आशाएं अनंत होते है I कभी समाप्त होने की नाम नहीं लेती I
बढ़ते रहना सबका धर्म है I परन्तु उसका भी तो एक सीमा है I कोई भी पेड़ बढ़ते -बढ़ते तो आसमान को नहीं छू पाता है I एक निर्धारित सीमा तक पहुँचने के बाद उन्नति अवनति में रूपांतरित हो जाता है I यह प्रकृति की नियम है I इसे परिवर्तन करना मनुष्य के वश में नहीं है I यह जानते हुए भी मनुष्य की इच्छाएं समाप्त नहीं हो जाएगी I अब भी बहुत सारे बाकि है I अपने इच्छा से रूप बदलना ,सशरीर स्वर्ग में पहुंचना ,अमरत्व को प्राप्त करना ,समुद्र को पी जाना ,पत्थर को जीवन दान करना , स्वर्ग ,मर्त्य और पटल के अधीश्वर बनना, आप्तवक्ता हो जाना ,हवा का स्वरुप को देख लेना ,सूर्य को पति बनाना ,पशु पक्षियों से बातें करना ,पेड़ को चलाना ,इच्छा से मरना ,शारीर को वज्र बना देना ,विश्व को अपने में और अपने को विश्व देख लेना इत्यादि कितना कुछ बाकि है I क्या ये सब असंभव है ?क्या ये बातें अमानवीय है ?क्या ये सब कवि की कल्पनाएँ है ? हो सकता है की इतिहास हमको जो जो ज्ञान देता है उसे ऐतिहासिक प्रमाण मानकर हम सब स्वीकार करते हैं I चाहे छोटा सा प्रमाण में बडा सा काल्पनिक रूप क्यूँ न हो I आज का ऐतिहासिक जितने पुरातन तत्यों को समझने के लिए समर्थ होते हैं ,क्या इतिहास वहीं से सुरु हुआ है ? क्या सही में मेसोपोटामिया या हरप्पा सभ्यता से मानव अपने सभ्यता को सुरु किया ? चार या पांच हजार साल पहले मानव क्या बंदर था ? ये सब उलझन को सुलझाने के लिए क्या हम सब वेद ,पुराण ,रामायण,महाभारत को काल्पनिक साहित्य और अतिरंजित कहानियां कहकर त्याग दें ?या जानने की प्रयास जरी रखें I असंभव केवल कापुरुषों के ह्रदय में होता है ,परन्तु संभावना महासागर के आर पार को दिखने में सामर्थ्य प्रदान करती है I
क्रमशः .....................
बढ़ते रहना सबका धर्म है I परन्तु उसका भी तो एक सीमा है I कोई भी पेड़ बढ़ते -बढ़ते तो आसमान को नहीं छू पाता है I एक निर्धारित सीमा तक पहुँचने के बाद उन्नति अवनति में रूपांतरित हो जाता है I यह प्रकृति की नियम है I इसे परिवर्तन करना मनुष्य के वश में नहीं है I यह जानते हुए भी मनुष्य की इच्छाएं समाप्त नहीं हो जाएगी I अब भी बहुत सारे बाकि है I अपने इच्छा से रूप बदलना ,सशरीर स्वर्ग में पहुंचना ,अमरत्व को प्राप्त करना ,समुद्र को पी जाना ,पत्थर को जीवन दान करना , स्वर्ग ,मर्त्य और पटल के अधीश्वर बनना, आप्तवक्ता हो जाना ,हवा का स्वरुप को देख लेना ,सूर्य को पति बनाना ,पशु पक्षियों से बातें करना ,पेड़ को चलाना ,इच्छा से मरना ,शारीर को वज्र बना देना ,विश्व को अपने में और अपने को विश्व देख लेना इत्यादि कितना कुछ बाकि है I क्या ये सब असंभव है ?क्या ये बातें अमानवीय है ?क्या ये सब कवि की कल्पनाएँ है ? हो सकता है की इतिहास हमको जो जो ज्ञान देता है उसे ऐतिहासिक प्रमाण मानकर हम सब स्वीकार करते हैं I चाहे छोटा सा प्रमाण में बडा सा काल्पनिक रूप क्यूँ न हो I आज का ऐतिहासिक जितने पुरातन तत्यों को समझने के लिए समर्थ होते हैं ,क्या इतिहास वहीं से सुरु हुआ है ? क्या सही में मेसोपोटामिया या हरप्पा सभ्यता से मानव अपने सभ्यता को सुरु किया ? चार या पांच हजार साल पहले मानव क्या बंदर था ? ये सब उलझन को सुलझाने के लिए क्या हम सब वेद ,पुराण ,रामायण,महाभारत को काल्पनिक साहित्य और अतिरंजित कहानियां कहकर त्याग दें ?या जानने की प्रयास जरी रखें I असंभव केवल कापुरुषों के ह्रदय में होता है ,परन्तु संभावना महासागर के आर पार को दिखने में सामर्थ्य प्रदान करती है I
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Good one s.f
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