आज के समय मनुष्य की आवश्यकता अनंत है। सारी कामनाओं को पूरा करने के लिए मनुष्य क्या क्या नहीं किया ?क्या क्या नहीं कर रहा है ?अभी भी करने के लिए बहुत कुछ बाकी है। ऐसे अनंत जिज्ञासायें होंगे जो अवतक मानव मस्तिष्क मैं स्थानित नहीं हुआ होगा ,उन्हें भी करना पड़ेगा।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेव वशिस्यते।
अर्थात - ०+०=०, ०-०=० , ० x ० =० , ०/० =०
क्रमशः-------------
परिवर्तन एक अपरिवर्तनीय नियम हैं। नूतनता हमेसा पुरातन का उत्तराधिकारी है। पुरातन को त्यागदेना नूतनत्व को अपना लेना मनुष्य का सहज प्रवृति है। गीता मैं यह स्पष्ट है -"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय "मनुष्य क्या आत्मा भी जीर्ण शरीर को त्याग देता है। परन्तु सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो पंच महाभूतों से निर्मित शरीर फिर पंच महाभूतों मैं मिल जाते हैं। आत्मा जिस नया शरीर को प्राप्त करता है ,वह भी महाभूतों से निर्मित है। तो नया क्या हुआ ?जंहा से उत्पन्न वहीं समापन। पुनरपि पुनः न्याय से आदि और अंत ,प्रारम्भ और समाप्त ,सुख और दुःख ,लाभ और क्षति ,जिस सूक्ष्म विंदु से प्रारम्भ हैं ,उसी बिंदु पर ही अंत होते हैं। नूतन पुरातन से ही उत्पन्न हुआ ,पुरातन मैं ही समाप्त होगा। शून्य ही सम्पूर्ण है ,सम्पूर्ण शून्य ही है। पूर्ण को तो हम शून्य कहते हैं। यथा -पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेव वशिस्यते।
अर्थात - ०+०=०, ०-०=० , ० x ० =० , ०/० =०
क्रमशः-------------
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